डर
दहशत उछालता
खुली खिड़की का डर
भीतर तक झांकता है
बंद करो न खिड़की
कौन तुम्हें पालता है
पर
बंद खिड़की का डर
उससे भी है बढ़कर
जान लेवा
जान लेना
.
- मीठेश निर्मोही
--------------------------
मरुस्थल : दो शब्द चित्र
( एक )
उगल रहे हैं आग
बदल रहे हैं राग
अपना ही भूगोल
और तस्वीर अपनी
रह - रह कर ठिकाने बदलते हुए
बिखरे - बिफरे
ये धोरे रेत के .
( दो )
जेठ की दुपहरी में
उठती हुई लपटों की हाहाकार
मुंह फेर लिया है रोही ने
पल - पल पसरती ही जा रही हैं चीखें
एक- एक कर
दम तोड़ते जा रहे हैं -
मृग - छौने
और मृग
ज़ार - ज़ार रो रही है
थूहर .
- मीठेश निर्मोही
दहशत उछालता
खुली खिड़की का डर
भीतर तक झांकता है
बंद करो न खिड़की
कौन तुम्हें पालता है
पर
बंद खिड़की का डर
उससे भी है बढ़कर
जान लेवा
जान लेना
.
- मीठेश निर्मोही
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मरुस्थल : दो शब्द चित्र
( एक )
उगल रहे हैं आग
बदल रहे हैं राग
अपना ही भूगोल
और तस्वीर अपनी
रह - रह कर ठिकाने बदलते हुए
बिखरे - बिफरे
ये धोरे रेत के .
( दो )
जेठ की दुपहरी में
उठती हुई लपटों की हाहाकार
मुंह फेर लिया है रोही ने
पल - पल पसरती ही जा रही हैं चीखें
एक- एक कर
दम तोड़ते जा रहे हैं -
मृग - छौने
और मृग
ज़ार - ज़ार रो रही है
थूहर .
- मीठेश निर्मोही
behtreen prastuti, bahut sunder bhav........badhai
ReplyDeletesundar lagi.. kavitayen.. badhai.
ReplyDeleteस्वागत मीठेश जी...
ReplyDeleteबंद खिडकी का डर , उससे भी बढ्कर है , जान लेवा जान लेना
ReplyDeleteबहुत अच्छा है ...सुन्दर ................स्वागत है
दहशत उछालता
ReplyDeleteखुली खिड़की का डर
भीतर तक झांकता है
बंद करो न खिड़की
कौन तुम्हें पालता है.........सुंदर रचना के लिए बधाई.....
सुंदर,भावपूर्ण अभिव्यक्ति
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