Saturday 7 April 2012

 डर

 दहशत उछालता
खुली खिड़की का डर
भीतर तक झांकता है
बंद करो न खिड़की
कौन तुम्हें पालता है
पर
बंद खिड़की का डर
उससे भी है बढ़कर
जान लेवा
जान लेना
.
 - मीठेश निर्मोही 
 
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मरुस्थल : दो शब्द चित्र 


( एक )
उगल रहे हैं आग
बदल रहे हैं राग
अपना ही भूगोल
और तस्वीर अपनी
रह - रह कर ठिकाने बदलते हुए
बिखरे - बिफरे
ये धोरे रेत के .

 ( दो )
जेठ की दुपहरी में
उठती हुई लपटों की हाहाकार
मुंह फेर लिया है रोही ने
पल - पल पसरती ही  जा रही हैं चीखें

एक- एक कर
दम तोड़ते जा रहे हैं -
मृग - छौने
और मृग
ज़ार - ज़ार  रो रही है
थूहर .

- मीठेश निर्मोही







 

6 comments:

  1. behtreen prastuti, bahut sunder bhav........badhai

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  2. स्वागत मीठेश जी...

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  3. बंद खिडकी का डर , उससे भी बढ्कर है , जान लेवा जान लेना
    बहुत अच्छा है ...सुन्दर ................स्वागत है

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  4. दहशत उछालता
    खुली खिड़की का डर
    भीतर तक झांकता है
    बंद करो न खिड़की
    कौन तुम्हें पालता है.........सुंदर रचना के लिए बधाई.....

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  5. सुंदर,भावपूर्ण अभिव्यक्ति

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